Veer savarkar...the first to stand the truth of first war of Independence


The Indian War of Independence - 1947
वीर सावरकर ने इस पुस्तक में सनसनीखेज व खोजपूर्ण इतिहास लिख कर ब्रिटिश शासन को हिला डाला था जिसके कारण इस पुस्तक के प्रकाशन के लिए सावरकर जी को अनगिनत परेशानियों का सामना करना पड़ा । वीर सावरकर से पहले सभी इतिहासकारों ने 1947 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक "सिपाही विद्रोह" या अधिकतम "भारतीय विद्रोह" कहा था । यहाँ तक कि भारतीय विश्लेषकों ने भी इसे भारत में ब्रिटिष साम्राज्य के ऊपर किया गया एक योजनाबद्ध राजनीतिक एवं सैन्य आक्रमण ही कहा था ।
सावरकर प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने 1947 की घटनाओं को भारतीय दृष्टिकोण से देखा। सावरकर जी ने इस पूरी घटना को उस समय उपलब्ध साक्ष्यों व पाठ सहित पुनरव्याख्यित करने का निश्चय किया और कई महीने इण्डिया ऑफिस पुस्तकालय में इस विषय पर अध्ययन में बिताये । इस पुस्तक को सावरकर जी ने मूलतः मराठी में 1908 में पूरा किया परन्तु इसके मुद्रण की समस्या आयी । इसके लिये लन्दन से लेकर पेरिस और जर्मनी तक प्रयास किये गये किन्तु वे सभी प्रयास असफल रहे । इंडिया हाउस में रह रहकर छः छात्रों ने इस पुस्तक का अंग्रेज़ी अनुवाद किया और बाद में यह पुस्तक किसी प्रकार गुप्त रूप से 1909 में हॉलैंड से प्रकाशित हुई और इसकी प्रतियाँ फ्रांस पहुँचायी गयीं । फिर इसका द्वितीय संस्करण लाला हरदयाल द्वारा गदर पार्टी की ओर से अमरीका में निकला, तृतीय संस्करण सरदार भगत सिंह द्वारा निकाला गया और चतुर्थ संस्करण नेताजी सुभाष चंद्र बोस द्वारा सुदूर-पूर्व में निकाला गया । फिर इस पुस्तक का अनुवाद उर्दु, हिंदी, पंजाबी व तमिल में भी किया गया । इसके बाद एक संस्करण गुप्त रूप से भारत में भी द्वितीय विश्व यु्द्ध के समाप्त होने के बाद मुद्रित हुआ । इसकी मूल पांडु-लिपि मैडम भीकाजी कामा के पास पैरिस में सुरक्षित रखी थी । यह प्रति अभिनव भारत के डॉ.क्यूतिन्हो को प्रथम विश्व युद्ध के दौरान पैरिसम संकट आने के दौरान सौंपी गई । डॉ.क्युतिन्हो ने इसे किसी पवित्र धार्मिक ग्रंथ की भांति ४० वर्षों तक सुरक्षित रखा । भारतीय स्वतंत्रता उपरांत उन्होंने इसे रामलाल वाजपेयी और डॉ.मूंजे को दे दिया, जिन्होंने इसे सावरकर को लौटा दिया। इस पुस्तक पर लगा निषेध अन्ततः मई, 1946 में बंबई सरकार द्वारा हटा लिया गया ।
सैल्यूलर जेल (Cellular Jail)
नासिक जिले के कलेक्टर जैकसन की हत्या के लिए 'नासिक षडयंत्र काण्ड' के अंतर्गत इन्हें 7 अप्रैल, 1911 को काला पानी की सजा पर सेलुलर जेल भेजा गया। यहाँ उन्हें दूसरी मंजिल की कोठी नंबर २३४ मैं रखा गया और उनके कपड़ो पर भयानक कैदी लिखा गया । कोठरी मैं सोने और खड़े होने पर दीवार छू जाती थी | उनके के अनुसार यहां स्वतंत्रता सेनानियों को नारियल छीलकर उसमें से तेल निकालना पड़ता था । साथ ही इन्हें यहां कोल्हू में बैल की तरह जुत कर सरसों व नारियल आदि का तेल भी निकालना होता था । इसके अलावा उन्हें जेल के साथ लगे व बाहर के जंगलों को साफ कर दलदली भूमी व पहाड़ी क्षेत्र को समतल भी करना होता था । रुकने पर उनको कड़ी सजा व बेंत व कोड़ों से पिटाई भी की जाती थीं । इतने पर भी उन्हें भरपेट खाना भी नहीं दिया जाता था। इतना कष्ट सहने के बावजूद भी वह रात को दीवार पर कविता लिखते, उसे याद करते और मिटा देते । सावरकर 4 जुलाई, 1911 से 21 मई, 1921 तक पोर्ट ब्लेयर की जेल में रहे ।
सबसे आश्चर्य की बात ये है कि आजादी के बाद भी जवाहर लाल नेहरू और कांग्रेस ने उनसे न्याय नहीं किया । देश का हिन्दू कहीं उन्हें अपना नेता न मान बैठे इसलिए उन पर महात्मा गाँधी की हत्या का आरोप लगा कर लाल किले मैं बंद कर दिया गया। बाद मे. न्यायालय ने उन्हें ससम्मान रिहा कर दिया। पूर्वाग्रह से ग्रसित कांग्रेसी नेताओं ने उन्हें इतिहास मैं यथोचित स्थान नहीं दिया। स्वाधीनता संग्राम में केवल गाँधी और गांधीवादी नेताओं की भूमिका का बढा-चढ़ाकर उल्लेख किया गया ।
वीर सावरकर की मृत्यु के बाद भी कांग्रेस ने उन्हें नहीं छोडा । सन 2003 मैं वीर सावरकर का चित्र संसद के केंद्रीय कक्ष मैं लगाने पर कांग्रेस ने विवाद खडा कर दिया था। 2007 मैं कांग्रेसी नेता मणि शंकर अय्यर ने अंडमान के कीर्ति स्तम्भ से वीर सावरकर के नाम का शिलालेख हटाकर महात्मा गाँधी के नाम का पत्थर लगा दिया । जिन कांग्रेसी नेताओ ने राष्ट्र को झूठे आश्वासन दिए, देश का विभाजन स्वीकार किया, जिन्होंने शेख से मिलकर कश्मीर का सौदा किया, वो भले ही आज पूजे जाये पर क्या वीर सावरकर को याद रखना इस राष्ट्र का कर्तव्य नहीं है ?
क्रमबद्ध प्रमुख घटनाएँ
- पढाई के दौरान के विनायक ने स्थानीय नवयुवकों को संगठित करके "मित्र मेलों" का आयोजन करना शुरू कर नवयुवकों में राष्ट्रीयता की भावना के साथ क्रान्ति की ज्वाला जगाना प्रारंभ कर दिया था ।
- 1904 में उन्हॊंने अभिनव भारत नामक एक क्रान्तिकारी संगठन की स्थापना की ।
- 1905 में बंगाल के विभाजन के बाद उन्होने पुणे में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई ।
- फर्ग्युसन कॉलेज, पुणे में वे राष्ट्रभक्ति से ओत-प्रोत ओजस्वी भाषण देकर युवाओ को क्रांति के लिए प्रेरित करते थे ।
- बाल गंगाधर तिलक के अनुमोदन पर 1906 में उन्हें श्यामजी कृष्ण वर्मा छात्रवृत्ति मिली ।
इंडियन सोशियोलाजिस्ट और तलवार नामक पत्रिकाओं में उनके अनेक लेख प्रकाशित हुये, जो बाद में कलकत्ता के युगान्तर पत्र में भी छपे ।
- 10 मई, 1907 को इन्होंने इंडिया हाउस, लन्दन में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की स्वर्ण जयन्ती मनाई । इस अवसर पर विनायक सावरकर ने अपने ओजस्वी भाषण में प्रमाणों सहित 1847 के संग्राम को गदर नहीं, अपितु भारत के स्वातन्त्र्य का प्रथम संग्राम सिद्ध किया ।
- 1908 में इनकी पुस्तक 'The Indian war of Independence - 1947" तैयार हो गयी |
- मई 1909 में इन्होंने लन्दन से बार एक्ट ला (वकालत) की परीक्षा उत्तीर्ण की, परन्तु उन्हें वहाँ वकालत करने की अनुमति नहीं मिली ।
- लन्दन में रहते हुये उनकी मुलाकात लाला हरदयाल से हुई जो उन दिनों इण्डिया हाऊस की देखरेख करते थे ।
- 1 जुलाई, 1909 को मदनलाल ढींगरा द्वारा विलियम हट कर्जन वायली को गोली मार दिये जाने के बाद उन्होंने लन्दन टाइम्स में एक लेख भी लिखा था ।
- 13 मई, 1910 को पैरिस से लन्दन पहुँचने पर उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया |
- 8 जुलाई, 1910 को एस०एस० मोरिया नामक जहाज से भारत ले जाते हुए सीवर होल के रास्ते ये भाग निकले ।
- 24 दिसंबर, 1910 को उन्हें आजीवन कारावास की सजा दी गयी ।
- 31 जनवरी, 1911 को इन्हें दोबारा आजीवन कारावास दिया गया ।
- नासिक जिले के कलेक्टर जैकसन की हत्या के लिए नासिक षडयंत्र काण्ड के अंतर्गत इन्हें 7 अप्रैल, 1911 को काला पानी की सजा पर सेलुलर जेल भेजा गया ।
- 4 जुलाई, 1911 से 21 मई, 1921 तक पोर्ट ब्लेयर की जेल में रहे ।
- 1921 में मुक्त होने पर वे स्वदेश लौटे और फिर 3 साल जेल भोगी । जेल में उन्होंने हिंदुत्व पर शोध ग्रन्थ लिखा ।
- मार्च, 1925 में उनकी भॆंट राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक, डॉ० हेडगेवार से हुई ।
- फरवरी, 1931 में इनके प्रयासों से बम्बई में पतित पावन मन्दिर की स्थापना हुई, जो सभी हिन्दुओं के लिए समान रूप से खुला था ।
- 25 फरवरी, 1931 को सावरकर ने बम्बई प्रेसीडेंसी में हुए अस्पृश्यता उन्मूलन सम्मेलन की अध्यक्षता की ।
- 1937 में वे अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के कर्णावती (अहमदाबाद) में हुए 19वें सत्र के अध्यक्ष चुने गये, जिसके बाद वे पुनः सात वर्षों के लिये अध्यक्ष चुने गये ।
- 15 अप्रैल, 1938 को उन्हें मराठी साहित्य सम्मेलन का अध्यक्ष चुना गया ।
- 13 दिसम्बर, 1937 को नागपुर की एक जन-सभा में उन्होंने अलग पाकिस्तान के लिये चल रहे प्रयासों को असफल करने की प्रेरणा दी थी ।
- 22 जून, 1941 को उनकी भेंट नेताजी सुभाष चंद्र बोस से हुई ।
- 9 अक्तूबर, 1942 को भारत की स्वतन्त्रता के निवेदन सहित उन्होंने चर्चिल को तार भेज कर सूचित किया । सावरकर जीवन भर अखण्ड भारत के पक्ष में रहे । स्वतन्त्रता प्राप्ति के माध्यमों के बारे में गान्धी और सावरकर का एकदम अलग दृष्टिकोण था ।
- 1943 के बाद दादर, बम्बई में रहे ।
- 19 अप्रैल, 1945 को उन्होंने अखिल भारतीय रजवाड़ा हिन्दू सभा सम्मेलन की अध्यक्षता की ।
- अप्रैल 1946 में बम्बई सरकार ने सावरकर के लिखे साहित्य पर से प्रतिबन्ध हटा लिया ।
- 1947 में इन्होने भारत विभाजन का विरोध किया। महात्मा रामचन्द्र वीर नामक (हिन्दू महासभा के नेता एवं सन्त) ने उनका समर्थन किया ।
- 15 अगस्त, 1945 को उन्होंने सावरकर सदान्तो में भारतीय तिरंगा एवं भगवा, दो-दो ध्वजारोहण किये। इस अवसर पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उन्होंने पत्रकारों से कहा कि मुझे स्वराज्य प्राप्ति की खुशी है, परन्तु वह खण्डित है, इसका दु:ख है। उन्होंने यह भी कहा कि राज्य की सीमायें नदी तथा पहाड़ों या सन्धि-पत्रों से निर्धारित नहीं होतीं, वे देश के नवयुवकों के शौर्य, धैर्य, त्याग एवं पराक्रम से निर्धारित होती हैं ।
- 5 फरवरी, 1948 को गान्धी-वध के उपरान्त उन्हें प्रिवेन्टिव डिटेन्शन एक्ट धारा के अन्तर्गत गिरफ्तार कर लिया गया ।
- 4 अप्रैल, 1950 को पाकिस्तानी प्रधान मंत्री लियाक़त अली ख़ान के दिल्ली आगमन की पूर्व संध्या पर उन्हें सावधानीवश बेलगाम जेल में रोक कर रखा गया ।
- मई, 1952 में पुणे की एक विशाल सभा में अभिनव भारत संगठन को उसके उद्देश्य (भारतीय स्वतन्त्रता प्राप्ति) पूर्ण होने पर भंग किया गया ।
- 10 नवम्बर, 1957 को नई दिल्ली में आयोजित हुए 1857 के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के शाताब्दी समारोह में वे मुख्य वक्ता रहे ।
- 8 अक्तूबर, 1959 को उन्हें पुणे विश्वविद्यालय ने डी०.लिट० की मानद उपाधि से अलंकृत किया ।
- सितम्बर, 1966 से उन्हें तेज ज्वर ने आ घेरा, जिसके बाद इनका स्वास्थ्य गिरने लगा ।
- 1 फरवरी, 1966 को उन्होंने मृत्युपर्यन्त उपवास करने का निर्णय लिया ।
- 26 फरवरी, 1966 को बम्बई में भारतीय समयानुसार प्रातः १० बजे उन्होंने पार्थिव शरीर छोड़कर परमधाम को प्रस्थान किया ।
सावरकर को ब्रिटिश सरकार ने क्रान्ति कार्यों के लिए दो-दो आजन्म कारावास की सजा दी थी जो विश्व के इतिहास की पहली एवं अनोखी सजा थी। सावरकर के अनुसार -
"मातृभूमि ! तेरे चरणों में पहले ही मैं अपना मन अर्पित कर चुका हूँ। देश-सेवा ही ईश्वर-सेवा है, यह मानकर मैंने तेरी सेवा के माध्यम से भगवान की सेवा की है |"
निसंदेह अंग्रेजो की सरकार के लिए वीर सावरकर के क्रांतिकारी विचार एक बहुत बड़ी समस्या से थे, और सावरकर जी अंग्रेजी सरकार के लिए हमेशा ही एक "खलनायक" थे | शायद भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, लाला लाजपत रॉय जैसे खलनायक, या फिर उनसे भी बड़े महाखलनायक थे |
लेकिन आज न तो अंग्रेजो की सरकार है और न ही हम अँगरेज़ है | वो अंग्रेजी सरकार के लिए क्या थे, आज ये प्रश्न बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं है | आज हम स्वतंत्र है, लेकिन फिर भी यदि कोई व्यक्ति या दल वीर सावरकर जी को खलनायक, गद्दार या कुछ ऐसा ही कहता है, तब ऐसे व्यक्तियों या दल पर एक बहुत बड़ा प्रश्न चिन्ह लगना स्वाभाविक है | इतना ही नहीं, इनकी सोच से देश और देशवासियों के प्रति चल रहे किसी गूढ़ षड़यंत्र की बू आती है | 
उपरोक्त जानकारी के बाद अब आपको निर्णय लेना है कि क्या वीर सावरकर को खलनायक या गद्दार कहने वाले किसी भी व्यक्ति अथवा दल की सोच भारतीय हो सकती है ? भारत को कुछ लोगो अथवा परिवार का गुलाम मानने वाले  लोगो ने सावरकर जी को कुछ अपशब्द कहें है, एक ऐसे व्यक्ति को जिसने अपना पूरा जीवन भारतीय संस्कृति की रक्षा और देश की आज़ादी के लिए समर्पित कर दिया | क्या इन लोगो की सोच किसी भी प्रकार से भारतीय हो सकती हो ? क्या ये लोग आपके और मेरे भारत के मित्र हो सकते है ? क्या ये भारत माता के सेवक है या आज भी अंग्रेजो के गुलाम ? अब इन लोगो के साथ आपको कैसा व्यहार करना है, इसका निर्णय आपको स्वं ही लेना होगा |
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