पेड़ की आत्मकथा
🌳पेड़ की आत्मकथा🌳
बच्चों के मस्ती और पंछियों के कलरव के साथ होती थी मेरी सुबह। गाँव के एक बड़े कुनबे ने मुझे हर संकट से बचाते हुए बड़ा किया। एक घर जहाँ तीन-तीन दादियों का वास हो भला छोटा कैसे हो सकता था। धमा चौक्कड़ी करने वाले बच्चों की संख्या हर दो बर्ष में बढ़ जाती मैंने भी इनकी मस्ती में आमरस भरने के लिए अपने डालियों पे अनगिनत आम लाद दिए। जब हवाओं का झोका चलता तो बच्चों का उसे पाने के लिए दौड़ना मुझे बहुत पसन्द था।
रात में आँधी में टोर्च की रौशनी में घर की बहुवें टोकरी लेकर कच्चे पक्के आम बीनते । कभी कोई इतराता की हम 10 टोकरी पाये कोई झगड़ जाता की हम बीनने वालों में से नही है।
वक़्त बीतता गया , बच्चे बड़े होगए और अपने शिक्षा के लिए शहर चल दिए। बच्चों के मन में ये मेरा - ये तेरा की भावना न थी। वक़्त बदला अब बड़े आम के लिए नही मेरे एक टहनी के गिरने में दौड़ते की इसे हम अपने चूल्हे में लगाएंगे।
इन्हें अब आम नही लकड़ी की जरुरत थी। कल तक जो बहुवे मेरे छाँव में डोली से उतरी थी आज अर्थी भी मेरे छाँव में उठने लगी। अब लोग मुझे आम देने वाले पेड़ की नज़र से नही लकड़ी की आपूर्ति पूरी करने वाले पेड़ की नज़र से देखने लगे थे।
अब किसी को मेरे प्रति कोई न प्रेम है न ही सहानभूति। अब न कोई गर्मी में मेरे छाँव में लूडो खेलता न ताश खेलता ना ही झूले पड़ते।
लोग अपने अपने चार दिवारी में बन्द कर लिए हैं जैसे उनके दिल भी एक दूसरों को देखना नही चाहता। मेरे लिए ये किसी अकेलेपन से कम नही। कल तक हँसता खेलता परिवार अब हमेशा एक दूसरे की आलोचना में लगा रहता है। मेरे छाँव में अब इनके दिलों में लगी जलन की तपिस मुझे सूरज की तपन से ज्यादा जला रही है। अब रोज घर में कलह होता है। न कोई बड़ा न कोई छोटा। छोटे भी बड़े बुजुर्गों पे अपने हाथ आजमाते हैं और गर्वित महसूस करते हैं।
इनकी आपसी ईर्षा और जलन से मैं सुख रहा हूँ। अब इनकी गाली गलौज से कोई पंछी भी मुझ पर अपना आशियाना नही बनाता है।
वक़्त के साथ मैंने भी समझोता कर लिया है और आँखे बन्द कर के बस इनके लिए मात्र लकड़ी का संसाधन बन, मूक खड़ा हूँ।
क्या होगया? इन बड़ो से अच्छे तो मेरे वो छोटे छोटे बच्चे थें। आज नही तो कल किसी के काम आ ही जाऊंगा मगर ये इंसान होके भी क्यों किसी के काम नही आना चाहते है। शायद ये काबिल नही, धन्य हो ईस्वर आपने मुझे वृक्ष का स्वरुप दिया। मेरे जीवन का हर पल प्राणी जगत के काम आया है। मेरा जीवन सफल हुआ... आशा है मेरे छाँव में कोई तो ऐसा लाल गुजरा होगा जो मेरे किसी बीज को पुनः इस स्थान पे रोपित करेगा।
आज में ठूँठ खड़ा हूँ... की कौन वार करेगा। उत्तर भी मैं जानता हूँ जो ज्यादा सोचता है की ये लकड़ी मेरे काम आएगा उसी के घर कोई गिरता है।
मेरा वो दुवार, आँगन, बगीचा सब सुन लग रहा है। मुझसे ज्यादा अकेला इस घर का हर शक्श है।
लेखक : सिंह शिवम् ( स०अ०)
प्रा० वि० जहुरुद्दीनपुर सुइथाकलां जौनपुर
अति उत्तम शिवम् जी ...लेखन में भी आपका प्रदर्शन सर्वोत्तम है
ReplyDeleteबड़े भाई....आपसे ही सीखता हूँ
Deleteअति उत्तम
ReplyDeleteशानदार हर विधा हर क्षेत्र में आप लाजवाब हैं
बिल्कुल सत्य है
जिस तरह माँ को अपना बच्चा हमेशा अच्छा लगता है उसी प्रकार आपको भी अपना अनुज लाजवाब दिखता है। धन्यवाद
Deleteअदभुत शिवमजी
ReplyDeleteधन्यवाद भाई
Deleteप्रशंसनीय
ReplyDeleteधन्यवाद
Deleteआपकी प्रशंसा के लिए क़ोई शब्द नहीं हैं मेरे पास । धन्यवाद आदरणीय गुरूजी।
ReplyDeleteOne of the best essay.!
ReplyDeleteबढ़िया आत्मकथा
ReplyDeleteपढ़े English कैसे सीखें- आसान तरीके
English kaise sikhate hain